देव-जो प्रकाशमान हो, तेजोमय और पूज्य।
देवता-जो कुछ देता है वही देवता है।
देव स्वयं द्युतिमान हैं—शक्तिसंपन्न हैं—किंतु अपने गुण वे स्वयं अपने में समाहित किए रहते हैं जबकि देवता अपनी शक्ति, द्युति आदि संपर्क में आए व्यक्तियों को भी प्रदान करते हैं।
ऐसी कुछ व्याख्या की है निरूक्तकार ने देव और देवता शब्द की।
"इस पृष्ठभूमि के बाद अगर कोई पूछे की क्या अर्थ निकलता है गुनाहों के देवता का? एक ऐसा प्रकाशमान एवं पूज्य व्यक्ति जिसने अपने संपर्क में आए व्यक्तियों को अपना तेज, अपनी अच्छाई, अपनी पूज्यता तो दी ही-साथ-साथ दे डाली अपने गुनाहों की थाती भी।"—ऐसा मेरा सोच है।
लेकिन सर्वमान्य अर्थ है—ऐसा पूज्य व प्रकाशमान व्यक्तिव्य जिसने गुनाह किया हो। क्योंकि सामान्य जनमानस कभी ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकता की कोई देवता पथभ्रष्ट हो सकता है, कोई पूज्य व्यक्तिव्य कैसे कोई भूल कर सकता है!
तो कुछ ऐसा ही है धर्मवीर भारती के इस उपन्यास—गुनाहों का देवता में
। ऐसा उपन्यास जो उन्होंने १९४९ में लिखा और आज भी लोग-बाग इसे उतने ही चाव से पढ़ते हैं जितना इसके पहली बार प्रकाशित होने पर। लेकिन क्या यह उनकी कालजयी रचनाओं में से एक है? नहीं। उन्होंने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि यह उनकी एक अपरिपक्व रचना है।
ऐसा लोगों ने अभिव्यक्त किया है कि उम्र के हर पड़ाव के साथ इस उपन्यास के मायने बदलते जाते हैं। बचपन और किशोरावस्था में इसे पढ़ें तो यह हृदय के बहुत समीप जान पड़ता है; प्रौढ़ावस्था में यही उपन्यास बेमानी जान पड़ता है। और बुढ़ापे में तो शायद ही कोई इसे पढ़े।
लेकिन मैं नहीं मानता। जबतक हमारे-आपके हृदय में—मन में—रोजमर्रा की जिंदगी में कहीं-न-कहीं कोई भावनात्मकता, स्नेह-प्रेम की सरसता रची-बसी है-इसकी कहानी प्रभवित करती रहेगी। और आप इसे पढ़ते रहेंगे।
बोकारो से मुजफ्फरपुर की यात्रा थी—कुछ १५ बरस पहले की। मौर्य एक्सप्रेस में। सामने की बर्थ पर मेरे ही जैसे दो-चार दोस्त और बैठे थें। उनमें से एक पास थी ये पुस्तक। ट्रेन चल रही थी। उस सहयात्री ने दो-चार पन्ने पढ़े और लगा अपने दोस्तों से बातें करने। किताब उसने अपने बगल में बंद कर रख दी। मैंने बेशरम होकर उससे उसकी ये पुस्तक माँग ली। फिर क्या था! रातभर जागकर खत्म कर डाली इसे।
अब कुछ दिनों पहले इसे पढ़ने का दोबारा मौका मिला। और इस बार पढ़ा—लेकिन रातभर जागकर नहीं बल्कि, पूरा एक सप्ताह लगाकर-रच-रच कर पढ़ा। और उतना ही इसने प्रभवित किया जितना आज से करीब १५ साल पहले।
कहानी के मूल में हैं चन्दर और सुधा। एक-दूसरे का सामीप्य, उनकी नोंक-झोंक, आपस का स्नेह, एक-दूसरे की फिक्र कब और कैसे उनके प्यार में परिवर्द्धित हो गया—उन्हें पता ही नहीं चला। लेकिन ये प्रेम शरीर की मांसलता का नहीं था। ये तो आदर्शवाद वाला प्रेम था। जहाँ दो-शरीर एक आत्मा वाली बात थी। शरीर तो कहीं था ही नहीं।
"प्रेम गली अति साँकरि, जा में दुई ना समाय"
सुधा के पिता का चन्दर के प्रति इतना उपकार था की वो कभी ऐसा कुछ करने की सोच भी नहीं सकता था जिससे उनके मन को आघात पहुँचे। इसलिए जब उन्होंने चन्दर से सुधा को विवाह के लिए कैलाश मिश्र की फोटो दिखाकर पसंद करवाने की बात कही तो चन्दर मना नहीं कर सका।
और प्यार की पहली अभिव्यक्ति करती हुई सुधा कह उठती है चन्दर से
—"मैं जैसी हूँ, मुझे वैसी ही क्यों नहीं रहने देते! मैं किसी से शादी नहीं करूँगी। मैं पापा के पास रहूँगी। शादी को मेरा मन नहीं कहता, मैं क्यों करूँ? तुम गुस्सा मत हो, दुखी मत हो, तुम आज्ञा दोगे तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ, लेकिन हत्या करने से पहले यह तो देख लो कि मेरे हृदय में क्या है?"
लेकिन सुधा को विवाह हेतु मनवाने के लिए चन्दर ने उससे पहले अपनी बात मान लेने का वचन ले लिया था। इसलिए सुधा तड़प उठी, कह उठी चन्दर से
—"हमें इस तरह से बाँध कर क्यों बलिदान चढ़ा रहे हो"।
और ऐसा सबकुछ करके चन्दर बन गया देवता—बिनती की नजरों में। सुधा के लिए तो वह था ही देवता।
लेकिन सुधा वो सम्बल थी जिसने चन्दर को देवता बनाया। और सुधा के ना होने पर, उसके दूर जाने से, चन्दर का विश्वास कमजोर होता गया, आदर्शवाद वाला प्यार मिट गया, और पहुँच गया वो पम्मी के मांसलता वाले प्यार में। लेकिन क्या पम्मी कोई गलत स्त्री थी? नहीं। उसने तो चन्दर को बस सहारा दिया था, उसका सहारा लिया था। अब अगर पम्मी के लिए प्यार के मायने शरीर के धरातल से ऊपर ना उठ सके तो उसकी क्या गलती! फिर चन्दर का अंतर्मन तो सुधा से परिपूर्ण था, वहाँ किसी और के लिए कोई जगह नहीं थी। जगह कोई बची थी तो वह शरीर ही था।
लेकिन बिनती का क्या? सुधा की दुलारी थी। सुधा की प्रिय थी तो चन्दर की भी प्रिय बन गई। और बन बैठी चन्दर-से देवता की पुजारिन। लेकिन कभी व्यक्त नहीं किया अपने देवता को। कभी समक्ष हो पूजा नहीं की इस देवता की। बस मन-ही-मन मानती रही अपने इस देवता को—मन-ही-मन करती रही पूजा अपने इस देवता की। समर्पण की भावना ऐसी की सर्वस्व न्योछावर कर दे—"चन्दर, मैं अपने को कुछ समझ नहीं पाती। सिर्फ इतना जानती हूँ कि मेरे मन में तुम जाने क्या हो; इतने महान् हो, इतने महान् हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं कर पाती, लेकिन तुम्हारे लिए कुछ भी करने से अपने को रोक नहीं सकती।"
सुधा ने विवाह तो कर लिया। ससुराल वाले भी सभी खुश हैं उसके बर्ताव से, उसकी शालीनता और सुघड़ता से। लेकिन क्या सुधा खुश है? पति-पत्नी के शारीरिक सम्बंध से? जहाँ आत्मा की बातें हो वहाँ शरीर गौण हो जाता है। सुधा के लिए शरीर गौण था। और उसे इससे घिन हो गई थी। लेकिन क्या ही कर सकती थी वो? बस चन्दर से कह बैठी क्योंकि एक वही तो था जिससे वो अपनी सारी बातें बिना हिचक कहती आई थी—"चन्दर, उनमें सबकुछ है। वे बहुत अच्छे हैं, बहुत खुले विचार के हैं, मुझे बहुत चाहते हैं, मुझ पर कहीं से कोई बन्धन नहीं, लेकिन इस सारे स्वर्ग का मोल जो देकर चुकाना पड़ता है उससे मेरी आत्मा का कण-कण विद्रोह कर उठता है।"
और ऐसी सुधा के लिए चन्दर के मन में विद्वेष ने जगह बनानी शुरू कर दी। सुधा को उसने वचन दिया था की वह अपने व्यक्तिव को और ऊँचा उठाएगा लेकिन वह तो पतित होता जा रहा था। देवता गुनाहों के राह पर अग्रसर हो चला था। और उसका पहला गुनाह था सुधा को खुद से अलग करने का, उसके पत्र को वापस भेजने का और आग्रह की वो उसे दुबारा पत्र ना लिखे—"मैं विनती करता हूँ, मुझे खत मत लिखना—आज विनती करता हूँ क्योंकि आज्ञा देने का अब साहस भी नहीं, अधिकार भी नहीं, व्यक्तित्व भी नहीं। खत तुम्हारा तुम्हें भेज रहा हूँ।"
और इसकी परिणति होती है चन्दर के उस भयावह सपने में जब सुधा के प्रति उसका आदर्शवादी प्यार इस हाड़-मांस के लोथड़े के प्यार में अपसरित हो जाता है
—"तुम्हारे इस जूठे तन में रखा क्या है?"
कोई देवता अपना पथ भुला बैठे तो क्या उसकी सबसे बड़ी पुजारिन निःशब्द हो उसे उस पथ पर और गिरते रहने देगी? नहीं! और फिर ये तो सुधा थी। जिसका व्यक्तित्व स्वयं उसके देवता ने बनाया था। अब सुधा की बारी थी अपने पथभ्रष्ट देवता को सही राह दिखाने की। लेकिन इसका क्या मूल्य चुकाना पड़ा सुधा को?
अगर इतना कुछ पढ़ने के बाद आपका मन इस उपन्यास को पढ़ने का है तो आप इसे इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं।
गुनाहों का देवता-गद्यकोश
गुनाहों का देवता-हिंदी समय
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आजकल लाइफओके टीवी चैनल पर इसी उपन्यास पर आधारित एक धारावाहिक "
एक था चन्दर एक थी सुधा" का प्रसारण हो रहा है। इसकी कुल २० कड़ियाँ हैं।