शनिवार, 17 जुलाई 2021

भारत के महान साधक

बँगला भाषा में श्री प्रमथनाथ भट्टाचार्य (उपनाम—श्री शंकरनाथ राय) की 'भारतेर साधक' ख्याति प्राप्त पुस्तक है। इस में उन्होंने विभिन्न काल के उच्चकोटि के साधकों का जीवन दर्शाया है। इन साधकों का चरित्र मनुष्य जीवन के आदर्श का उत्प्रेरक है। बचपन से लेकर बुढ़ापा तक—सभी को यह कृति पढ़नी चाहिए।

महामहोपाध्याय डा॰ गोपीनाथ कविराज ने इसकी प्रशंसा में लिखा है—
'भारत के महान् साधक' नामक ग्रन्थ में इसलिए विभिन्न मार्ग के साधकों के प्रति समरूप से श्रद्धाञ्जलि अर्पित की गई है, और यह देखकर चित्त में बहुत प्रसन्नता होती है, क्योंकि साधकों के प्रति श्रद्धार्पण के विषय में पथ या मार्ग को प्रधान न मानकर लक्ष्य ही को प्रधान मानना चाहिए। कारण, बहिरङ्ग-जीवन मुख्य नहीं है, आन्तर-उपलब्धि ही साधक-जीवन का परम सम्पद् है।
बँगला में इसकी प्रसिद्धि और उपादेयता को देखते हुए नव भारत प्रकाशन, दरभंगा ने इसके हिन्दी अनुवाद को कई खण्डों में प्रकाशित किया। अब शायद यह पुस्तक मुद्रित रूप में अप्राप्य है। इसके कुल ग्यारह खण्डों की क्रमवीक्षित प्रति इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं।
कोशिश रहेगी कि आगामी प्रस्तुतियों में इनका पाठ यूनिकोड में उपलब्ध हो।

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

हिंदी की वर्णमाला

आज का ये चिट्ठा हिंदी की वर्णमाला में कितने वर्ण हैं, इस पर आधारित है।

हिंदी भारोपीय भाषा परिवार की सदस्या है। और संस्कृत भी इसी भाषा परिवार की सदस्या है। हिंदी का उद्गम संस्कृत से ही हुआ है। संस्कृत भाषा का उद्गम जिस मूल भाषा से हुआ होगा वो अब लुप्त है। संभवतः इसी कारण आजकल के संस्कृत और हिंदी भाषी "ऋ" वर्ण का उच्चारण भूल चुके हैं। यद्यपि कुछ शताब्दियों से इसे "रि" (उत्तर भारत में) या "रु" (दक्षिण भारत में) की तरह उच्चरित किया जाता है लेकिन ये इसकी मूल ध्वनि नहीं है।

वर्ण किसी भी भाषा की सबसे छोटी ध्वनि है जिससे उस भाषा के सार्थक शब्दों का निर्माण होता है। इन ध्वनियों का संकलन ही उस भाषा की वर्णमाला कहलाता है।

वर्णों के उच्चारण और प्रयोग के दृष्टिकोण से इन्हें दो भागों में विभक्त किया जाता है—स्वर और व्यंजन।

स्वर उन्हें कहते हैं जिनके उच्चारण में किसी और वर्ण की सहायता नहीं ली जाती। इनके उच्चारण में फेफड़ों से आने वाली वायु बिना किसी अवरोध के बाहर निकलती है।

व्यंजन ऐसे वर्ण हैं जिनका उच्चारण बिना स्वर के नहीं किया जा सकता। इनके उच्चारण में भीतर से आने वाली वायु मुख विवर में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में बाधित होती है।

मूलतः हिन्दी वर्णमाला में वर्णों की संख्या ४४ है—११ स्वर और ३३ व्यंजन। लेकिन हिंदी की अपनी दो विशेष ध्वनियाँ हैं जिन्हें द्विगुण या उत्क्षिप्त कहते हैं। इस तरह वर्णमाला परिवार ४६ वर्णों का हो जाता है।
स्वर (११)
  • ह्रस्व-४
  • दीर्ध-७
व्यंजन (३३)
  • स्पर्श-२५
  • अंतःस्थ-४
  • ऊष्म-४
  • द्विगुण या उत्क्षिप्त-२
कुछ लोग संयुक्त व्यंजन (क्ष , त्र , ज्ञ) को भी वर्णमाला में गिनते हैं जो अनुचित है।



अरबी-फारसी-उर्दू के शब्दों के लिए कुछ व्यंजनों के नीचे बिंदु ("."- नुक्ता) लगाने का प्रबंध है लेकिन उन्हें उन मूल व्यंजनों के विकार के रूप में जाना जाता है बजाए इसके कि उन्हें वर्णमाला में शामिल किया जाए। ये हैं—
क़ ख़ ग़ ज़ फ़

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

गुनाहों का देवता

देव-जो प्रकाशमान हो, तेजोमय और पूज्य।

देवता-जो कुछ देता है वही देवता है।

देव स्वयं द्युतिमान हैंशक्तिसंपन्न हैंकिंतु अपने गुण वे स्वयं अपने में समाहित किए रहते हैं जबकि देवता अपनी शक्ति, द्युति आदि संपर्क में आए व्यक्तियों को भी प्रदान करते हैं।

ऐसी कुछ व्याख्या की है निरूक्तकार ने देव और देवता शब्द की।

"इस पृष्ठभूमि के बाद अगर कोई पूछे की क्या अर्थ निकलता है गुनाहों के देवता का? एक ऐसा प्रकाशमान एवं पूज्य व्यक्ति जिसने अपने संपर्क में आए व्यक्तियों को अपना तेज, अपनी अच्छाई, अपनी पूज्यता तो दी ही-साथ-साथ दे डाली अपने गुनाहों की थाती भी।"ऐसा मेरा सोच है।

लेकिन सर्वमान्य अर्थ हैऐसा पूज्य व प्रकाशमान व्यक्तिव्य जिसने गुनाह किया हो। क्योंकि सामान्य जनमानस कभी ऐसी कल्पना  भी नहीं कर सकता की कोई देवता पथभ्रष्ट हो सकता है, कोई पूज्य व्यक्तिव्य कैसे कोई भूल कर सकता है!

तो कुछ ऐसा ही है धर्मवीर भारती के इस उपन्यासगुनाहों का देवता में। ऐसा उपन्यास जो उन्होंने १९४९ में लिखा और आज भी लोग-बाग इसे उतने ही चाव से पढ़ते हैं जितना इसके पहली बार प्रकाशित होने पर। लेकिन क्या यह उनकी कालजयी रचनाओं में से एक है? नहीं। उन्होंने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि यह उनकी एक अपरिपक्व रचना है।

ऐसा लोगों ने अभिव्यक्त किया है कि उम्र के हर पड़ाव के साथ इस उपन्यास के मायने बदलते जाते हैं। बचपन और किशोरावस्था में इसे पढ़ें तो यह हृदय के बहुत समीप जान पड़ता है; प्रौढ़ावस्था में यही उपन्यास बेमानी जान पड़ता है। और बुढ़ापे में तो शायद ही कोई इसे पढ़े।

लेकिन मैं नहीं मानता। जबतक हमारे-आपके हृदय में—मन में—रोजमर्रा की जिंदगी में कहीं-न-कहीं कोई भावनात्मकता, स्नेह-प्रेम की  सरसता रची-बसी है-इसकी कहानी प्रभवित करती रहेगी। और आप इसे पढ़ते रहेंगे।

बोकारो से मुजफ्फरपुर की यात्रा थीकुछ १५ बरस पहले की। मौर्य एक्सप्रेस में। सामने की बर्थ पर मेरे ही जैसे दो-चार दोस्त और बैठे थें। उनमें से एक पास थी ये पुस्तक। ट्रेन चल रही थी। उस सहयात्री ने दो-चार पन्ने पढ़े और लगा अपने दोस्तों से बातें करने। किताब उसने अपने बगल में बंद कर रख दी। मैंने बेशरम होकर उससे उसकी ये पुस्तक माँग ली। फिर क्या था! रातभर जागकर खत्म कर डाली इसे।

अब कुछ दिनों पहले इसे पढ़ने का दोबारा मौका मिला। और इस बार पढ़ा—लेकिन रातभर जागकर नहीं बल्कि, पूरा एक सप्ताह लगाकर-रच-रच कर पढ़ा। और उतना ही इसने प्रभवित किया जितना आज से करीब १५ साल पहले।

कहानी के मूल में हैं चन्दर और सुधा। एक-दूसरे का सामीप्यउनकी नोंक-झोंक, आपस का स्नेह, एक-दूसरे की फिक्र कब और कैसे उनके प्यार में परिवर्द्धित हो गयाउन्हें पता ही नहीं चला। लेकिन ये प्रेम शरीर की मांसलता का नहीं था। ये तो आदर्शवाद वाला प्रेम था। जहाँ दो-शरीर एक आत्मा वाली बात थी। शरीर तो कहीं था ही नहीं।

"प्रेम गली अति साँकरि, जा में दुई ना समाय"

सुधा के पिता का चन्दर के प्रति इतना उपकार था की वो कभी ऐसा कुछ करने की सोच भी नहीं सकता था जिससे उनके मन को आघात पहुँचे। इसलिए जब उन्होंने चन्दर से सुधा को विवाह के लिए कैलाश मिश्र की फोटो दिखाकर पसंद करवाने की बात कही तो चन्दर मना नहीं कर सका।

और प्यार की पहली अभिव्यक्ति करती हुई सुधा कह उठती है चन्दर से"मैं जैसी हूँ, मुझे वैसी ही क्यों नहीं रहने देते! मैं किसी से शादी नहीं करूँगी। मैं पापा के पास रहूँगी। शादी को मेरा मन नहीं कहता, मैं क्यों करूँ? तुम गुस्सा मत हो, दुखी मत हो, तुम आज्ञा दोगे तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ, लेकिन हत्या करने से पहले यह तो देख लो कि मेरे हृदय में क्या है?"

लेकिन सुधा को विवाह हेतु मनवाने के लिए चन्दर ने उससे पहले अपनी बात मान लेने का वचन ले लिया था। इसलिए सुधा तड़प उठी, कह उठी चन्दर से"हमें इस तरह से बाँध कर क्यों बलिदान चढ़ा रहे हो"।

और ऐसा सबकुछ करके चन्दर बन गया देवताबिनती की नजरों में। सुधा के लिए तो वह था ही देवता।

लेकिन सुधा वो सम्बल थी जिसने चन्दर को देवता बनाया। और सुधा के ना होने पर, उसके दूर जाने से, चन्दर का विश्वास कमजोर होता गया, आदर्शवाद वाला प्यार मिट गया, और पहुँच गया वो पम्मी के मांसलता वाले प्यार में। लेकिन क्या पम्मी कोई गलत स्त्री थी? नहीं। उसने तो चन्दर को बस सहारा दिया था, उसका सहारा लिया था। अब अगर पम्मी के लिए प्यार के मायने शरीर के धरातल से ऊपर ना उठ सके तो उसकी क्या गलती! फिर चन्दर का अंतर्मन तो सुधा से परिपूर्ण था, वहाँ किसी और के लिए कोई जगह नहीं थी। जगह कोई बची थी तो वह शरीर ही था।

लेकिन बिनती का क्या? सुधा की दुलारी थी। सुधा की प्रिय थी तो चन्दर की भी प्रिय बन गई। और बन बैठी चन्दर-से देवता की पुजारिन। लेकिन कभी व्यक्त नहीं किया अपने देवता को। कभी समक्ष हो पूजा नहीं की इस देवता की। बस मन-ही-मन मानती रही अपने इस देवता को—मन-ही-मन करती रही पूजा अपने इस देवता की। समर्पण की भावना ऐसी की सर्वस्व न्योछावर कर दे"चन्दर, मैं अपने को कुछ समझ नहीं पाती। सिर्फ इतना जानती हूँ कि मेरे मन में तुम जाने क्या हो; इतने महान् हो, इतने महान् हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं कर पाती, लेकिन तुम्हारे लिए कुछ भी करने से अपने को रोक नहीं सकती।"

सुधा ने विवाह तो कर लिया। ससुराल वाले भी सभी खुश हैं उसके बर्ताव से, उसकी शालीनता और सुघड़ता से। लेकिन क्या सुधा खुश है? पति-पत्नी के शारीरिक सम्बंध से? जहाँ आत्मा की बातें हो वहाँ शरीर गौण हो जाता है। सुधा के लिए शरीर गौण था। और उसे इससे घिन हो गई थी। लेकिन क्या ही कर सकती थी वो? बस चन्दर से कह बैठी क्योंकि एक वही तो था जिससे वो अपनी सारी बातें बिना हिचक कहती आई थी"चन्दर, उनमें सबकुछ है। वे बहुत अच्छे हैं, बहुत खुले विचार के हैं, मुझे बहुत चाहते हैं, मुझ पर कहीं से कोई बन्धन नहीं, लेकिन इस सारे स्वर्ग का मोल जो देकर चुकाना पड़ता है उससे मेरी आत्मा का कण-कण विद्रोह कर उठता है।"

और ऐसी सुधा के लिए चन्दर के मन में विद्वेष ने जगह बनानी शुरू कर दी। सुधा को उसने वचन दिया था की वह अपने व्यक्तिव को और ऊँचा उठाएगा लेकिन वह तो पतित होता जा रहा था। देवता गुनाहों के राह पर अग्रसर हो चला था। और उसका पहला गुनाह था सुधा को खुद से अलग करने का, उसके पत्र को वापस भेजने का और आग्रह की वो उसे दुबारा पत्र ना लिखे"मैं विनती करता हूँ, मुझे खत मत लिखनाआज विनती करता हूँ क्योंकि आज्ञा देने का अब साहस भी नहीं, अधिकार भी नहीं, व्यक्तित्व भी नहीं। खत तुम्हारा तुम्हें भेज रहा हूँ।"

और इसकी परिणति होती है चन्दर के उस भयावह सपने में जब सुधा के प्रति उसका आदर्शवादी प्यार इस हाड़-मांस के लोथड़े के प्यार में अपसरित हो जाता है"तुम्हारे इस जूठे तन में रखा क्या है?"

कोई देवता अपना पथ भुला बैठे तो क्या उसकी सबसे बड़ी पुजारिन निःशब्द हो उसे उस पथ पर और गिरते रहने देगी? नहीं! और फिर ये तो सुधा थी। जिसका व्यक्तित्व स्वयं उसके देवता ने बनाया था। अब सुधा की बारी थी अपने पथभ्रष्ट देवता को सही राह दिखाने की। लेकिन इसका क्या मूल्य चुकाना पड़ा सुधा को?

अगर इतना कुछ पढ़ने के बाद आपका मन इस उपन्यास को पढ़ने का है तो आप इसे इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं।
गुनाहों का देवता-गद्यकोश
गुनाहों का देवता-हिंदी समय

ई-पुस्तक के रूप में आप डाउनलोड कर सकते हैं:
मोबी प्रारूप
ई-पब प्रारूप

आजकल लाइफओके टीवी चैनल पर इसी उपन्यास पर आधारित एक धारावाहिक "एक था चन्दर एक थी सुधा" का प्रसारण हो रहा है। इसकी कुल २० कड़ियाँ हैं।

शनिवार, 26 सितंबर 2015

तुमको देखा तो ये ख्याल आया

रात थी बारिश की। और रेडियो पर धीमी आवाज में विविध भारती स्टेशन से भी गानों की बरसात हो रही थी। मैं दसवीं पास कर आगे की पढ़ाई के बारे में सोच रहा था। तभी रेडियो पर बजते एक गीत ने ध्यान खींचा। गीत थागीत नहीं बल्कि गजल थी वो—"तुमको देखा तो ये ख्याल आया"। कुछ मौसम ऐसा तो कुछ उम्र वैसी, कुछ सरलता गजल की तो कुछ जगजीत जी की आवाज की मधुरताबस वो दिन और आज का दिनइतना लगाव किसी और गजल से नहीं।

तुमको देखा तो ये ख्याल आया
जिंदगी धूप, तुम घना साया।

आज फिर दिल ने एक तमन्ना की
आज फिर दिल को हम ने समझाया।

तुम चले जाओगे तो सोचेंगे
हमने क्या खोया, हमने क्या पाया।

हम जिसे गुनगुना नहीं सकते
वक्त ने ऐसा गीत क्यों गाया।

जावेद अख्तर के लिखे इस गजल ने, जिसे साथ-साथ सिनेमा के लिए कुलदीप सिंह ने संगीतबद्ध किया जगजीत जी की आवाज में, पता नहीं मुझ जैसे कितने लोगों को अपने आकर्षण में बाँधा है। १९८२ में आई इस सिनेमा में इसका फिल्मांकन इसके अभिनेता-अभिनेत्री फारुख शेख और दीप्ती नवल पर हुआ है।

इस गजल की अंतरात्मा है प्रेम और उसके खो जाने की आशंका। अब चाहे यह प्रेम एक प्रेमी-प्रेमिका का हो, एक पति-पत्नी का हो, दो साथियों का हो, माता-पिता का अपनी संतानों से या एक भक्त का उसके भगवान से! जब दो लोग प्रेम में होते हैं तो दोनों को एक-दूसरे के खोने का भय तो कहीं न कहीं रहता ही है। जैसे प्रेमी-प्रेमिका का कि उनका प्रेम अधूरा ही रह जाए! पति-पत्नी का कि शायद जिंदगी भर वैवाहिक संबंध न निभे! माँ-बाबूजी का कि उनकी संतानें उनसे पराई न हो जाएँ! बच्चों का कि उनके माता-पिता का आशीर्वाद एवं स्नेह सदा बना रहे!

सुनिए-देखिए इस गजल कोयादें ताजा कीजिए ८०-९० के दशक की मासूमियत की, निर्दोष-सी मुहब्बत की, तड़क-भड़क से अलग माहौल की, अपने जीवन से जुड़ी ऐसी बातों की जब आप बरबस गुनगना उठे हों"तुम चले जाओगे तो सोचेंगे हमने क्या खोया, हमने क्या पाया"।